महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद की जयंती के अवसर पर राष्ट्रीय कवि संगम काशी प्रांत की अमेठी इकाई द्वारा राष्ट्र जागरण धर्म हमारा का मूल मंत्र लेकर भव्य काव्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में बतौर मुख्य अथिति के रूप में अमेठी की विधायक श्रीमती महाराजी प्रजापति की गरिमामयी उपस्थिति रही। विशिष्ट अतिथि के रूप में राष्ट्रीय कवि संगम, काशी प्रांत के महामंत्री एवं ओज कवि अटल नारायण की उपस्थिति रही।
कार्यक्रम में 75 से अधिक कवियों ने काव्य पाठ किया। सभी कवियों ने अपनी रचनाओं से महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद को नमन करते हुए अपने काव्य पाठ से राष्ट्र जागरण की भावना का उद्गार किया। इस दौरान अटल नारायण बताया कि एक छोटी सी गोष्ठी से शुरू होकर आज राष्ट्रीय कवि संगम एक वट वृक्ष बन चुका है। आज राष्ट्रीय कवि संगम की देश के हर प्रांतों में इकाई है और दिन प्रति दिन इसकी पहुँच जनमानस तक बढ़ती जा रही है।
उन्होंने बताया कि आगामी माह में श्रीराम की नगरी अयोध्या में एक अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम का आयोजन होने जा रहा है। जिसमें हर प्रांत से १०-१० कवि काव्य पाठ करेंगे। उनका चयन इसी प्रकार की मासिक गोष्ठियों के माध्यम से होगा। यह कार्यक्रम उसी कड़ी का एक हिस्सा है।इस दौरान अजय ‘अनहद’ को राष्ट्रीय कवि संगम की अमेठी इकाई के संयोजक का दायित्व सौंपा गया। उक्त कार्यक्रम में संरक्षक के रूप में विनय सागर जयसवाल, डॉक्टर वेद प्रकाश आर्य, राजेंद्र शुक्ल अमरेश, सुधीर रंजन द्विवेदी, मथुरा प्रसाद जटायु एवं सुरेश जयसवाल की गरिमामयी उपस्थिति रही।राष्ट्रीय कवि संगम की अमेठी इकाई के ज़िला मंत्री आदित्य प्रताप, अभिजीत त्रिपाठी एवं अन्य कार्यकर्ताओं का विशेष योगदान रहा।
राष्ट्रीय कवि संगम राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री जगदीश मित्तल का दो दिवसीय प्रवास काशी प्रांत के प्रयागराज एवं कोशाम्बी में हुआ। इस दौरान प्रांतीय बैठक एवं होली मिलन कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया | इसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्रीय अध्यक्ष श्री शिव कुमार व्यास, प्रांतीय संरक्षक पूर्व विधायक श्री लालबहादुर, प्रांतीय अध्यक्ष श्री राज अग्रहरि भी रहे। राष्ट्रीय अध्यक्ष ने कार्यकर्ताओं को संगठनात्मक क्षमता बढ़ाने एवं कलम से राष्ट्र जागरण करने का आव्हान किया । काशी प्रांत में कुछ नए दायित्वों की घोषणा भी की । जिसमें श्री अटल नारायण को प्रांत महामंत्री, श्री चंद्र भूषण चंद्र को प्रांत मंत्री एवं श्री गित्यम उपाध्याय जी को ज़िला मिर्ज़ापुर का संयोजक नियुक्त किया गया।
बैठक के उपरांत कोशाम्बी में भव्य होली मिलन कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। कवि सम्मेलन में मुख्य अतिथि श्री बाबूलाल तिवारी एम एल सी प्रयागराज एवं झाँसी क्षेत्र, ज़िले के डी एम, पुलिस अधीक्षक, भाजपा ज़िला अध्यक्ष, कई पूर्व विधायक, श्री रोनक कुमार (होटल प्रयाग इन) एवं समाज के कई सम्मानित गण उपस्थित रहे। इस अवसर पर राष्ट्रीय कवि संगम के काशी प्रांत के संरक्षक एवं पूर्व विधायक लाल बहादुर जी, प्रांत अध्यक्ष राज अग्रहरि, प्रांत महामंत्री अटल नारायण उपस्थित रहे। कवि सम्मेलन में शिवकुमार व्यास, अटल नारायण, सुनील नवोदित, डॉक्टर नीलिमा मिश्रा, कमलेश कमल, धीरेंद्र सिंह नागा, चंद्र भूषण चंद्र, गित्यम उपाध्याय आदि की कविताओं को बहुत सराहा गया। खचाखच भरे पंडाल में फूलों एवं चंदन तिलक से खेली गई होली मुख्य आकर्षण का केंद्र रही। कार्यक्रम इतना रोचक एवं संस्कारक्षम था की प्रशासनिक अधिकारी कार्यक्रम के अंत तक बैठक रहे|
मैं शिव हूँ ….सत्य सनातन
आदिपुरुष अविनाशी हूँ
महाकाल विकराल उमापति
घट घट का मैं वासी हूँ
कैलाशी औघणदानी शिव
आशुतोष संहारक हूँ
त्यागी योगी नीलकंठ मैं
ही सृष्टि के तारक हूँ
~अटल नारायण
स्वीकार है, स्वीकार है
हमें धर्मपथ स्वीकार है
माँ भारती की अर्चना में
हम सदा तैयार हैं
चाहे सुमनमय यह डगर हो
या कंटको से हो भरी
हमने भी माता भारती की
ज्ञानमय वीणा सुनी
उस परम ज्योति किरण से
ज्योतिर्मय उदगार है
स्वीकार है स्वीकार है
मैं स्टेशन की सीढ़ीयों से बाहर निकल ही रहा था कि वो सामने से आयी , वास्तव मैं उससे ही मिलने उसके शहर आया था ये पता था कि वो बोलेगी नही फिर भी मैंने नज़रे उठाई ये देखने के लिये क्या वो मुझे देखती है कि नही शायद यही उसने भी सोचा हो फिर क्या जैसे तैसे नज़र लड़ ही गयी । ऐसा लग रहा था कि कुछ तलक धड़कने रुक सी गई । लेकिन आज उसके चेहरे का अज़ीब सा ही भाव था जैसे कि कोई फैसला करने आई हो ,मैं वही सीढियों पर ही रैलिंग के पास रुक गया, वो मेरी तरफ़ बढ़ने लगी मेरी शरीर हल्की से ढ़ीली पड़ रही थी इसलिए मैंने टेक ले लिया,वो पास आयी और बोली कि मैं तुमसे ही मिलने ही आ रही थी अच्छा हुआ तुम ख़ुद ही आ गए चलो रेस्तरां चलते है चाय भी पी लेंगे और कुछ ज़रूरी बात भी करनी है।
फिर हम लोग रेस्तराँ के लिये चल दिये। पास के ही एक रेस्तराँ हम गये ….…चाय-वाय हो ही रही थी कि मैंने पूछा कि बताईये क्या बात है ? उसने कहा कुछ नही फिर भी कही बताओ कैसे हो, औपचारिकता दर्शाते हुए।
मैं…ठीक हूँ
वो… मैं भी
मैं…आजकल मन मे कुछ ऐठन सी लगी रहती है।
वो… क्यों
मैं…क्या तुम्हें ऐसा कुछ नही होता
वो…नही
मैं…क्या तुमने बात की घर में
वो…नही क्यों ये पूछने पर बोली कि मुझें पता है कि वो क्या कहेंगे।
मैं…अच्छा क्या कहेंगे , अरे जाने भी दो ना
वो… अरे समाज नही स्वीकार करेगा
मैं…तो क्या हुआ तुम्हें स्वीकार है न,
हम दोनों एक दूसरे को कितना चाहते है
हाँ मगर
क्या मगर
अरे अरे अरे कही तुम्हारे मन मे कोई शक तो नहीं
वो…. कोई शक नही है
तुम बहुत अच्छे हो पढ़े लिखे हो, तुम्हारा हृदय भी विशाल है सब कुछ अच्छा है, पर हम एक नही हो सकते,
क्यों ये मैं पूछा?
फिर कोई उत्तर नही आया, हम दोनों कुछ पल के लिये चुप से हो गए
वो….ठीक है मैं जा रही हूँ फिर
मैं …ठीक है पर मेरे प्रश्न का उत्तर दे देना
वो…ये बात तुम अपने घरवालों से पूछो तो बेहतर होगा
वाकई में वो एक ब्राम्हण परिवार से ताल्लुक़ रखती थी और मैं दलित।
गुमनाम शहीदों की गाथा में एक बहुत ही बड़ा नाम जो इतिहास के पन्नों में लुप्त हो गया और 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक महान दलित महिला योद्धा की बहादुरी की कहानी बयां करती है वह नाम है झलकारी बाई। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिलाओं की एक शाखा थी, जिसकी सेनापति वीरांगना झलकारी बाई थीं।
झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास के भोजला गाँव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी थी, और उनके पिता ने उन्हें एक लड़के की तरह पाला था। उन्हें घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग करने में प्रशिक्षित किया गया था। उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों के कारण उन्हें कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं हो पाई, लेकिन उन्होनें खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था।
झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं का रख-रखाव और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थीं। एक बार जंगल में उसकी मुठभेड़ एक तेंदुए से हो गयी थी और झलकारी ने अपनी कुल्हाड़ी से उस तेंदुआ को मार डाला था। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था।
उनकी इस बहादुरी से खुश होकर गाँव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से करवा दिया। पूरन भी बहुत बहादुर था और पूरी सेना उसकी बहादुरी का लोहा मानती थी। एक बार गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले में गईं, वहाँ रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक रह गईं, क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं।
दोनों के रूप में आलौकिक समानता थी। अन्य औरतों से झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनकर रानी लक्ष्मीबाई बहुत प्रभावित हुईं। रानी ने झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दिया। झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलानाए तोप चलाना और तलवारबाजी की प्रशिक्षण लिया। यह वह समय था जब झांसी की सेना को किसी भी ब्रिटिश दुस्साहस का सामना करने के लिए मजबूत बनाया जा रहा था।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं। इस कारण शत्रु को गुमराह करने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। अपने अंतिम समय में भी वे रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अंग्रेज़ों के हाथों पकड़ी गयीं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। उन्होंने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी के साथ ब्रिटिश सेना के विरुद्ध अद्भुत वीरता से लड़ते हुए ब्रिटिश सेना के कई हमलों को विफल किया था। यदि लक्ष्मीबाई के सेनानायकों में से एक ने उनके साथ विश्वासघात न किया होता तो झांसी का किला ब्रिटिश सेना के लिए अभेद्य था।
झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया है। उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर, राजस्थान में निर्माणाधीन है।उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित है। लार्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के चलते, ब्रिटिशों ने निःसंतान लक्ष्मीबाई को उनका उत्तराधिकारी गोद लेने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि वे ऐसा करके राज्य को अपने नियंत्रण में लाना चाहते थे। हालांकि ब्रिटिश की इस कार्रवाई के विरोध में रानी के सारी सेना, उसके सेना नायक और झांसी के लोग रानी के साथ लामबंद हो गये और उन्होने आत्मसमर्पण करने के बजाय ब्रिटिशों के खिलाफ हथियार उठाने का संकल्प लिया।
अप्रैल 1857 के दौरान लक्ष्मीबाई ने झांसी के किले के भीतर से अपनी सेना का नेतृत्व किया और ब्रिटिश और उनके स्थानीय सहयोगियों द्वारा किये कई हमलों को नाकाम कर दिया। रानी के सेनानायकों में से एक दूल्हेराव ने उसे धोखा दिया और किले का एक संरक्षित द्वार ब्रिटिश सेना के लिए खोल दिया। जब किले का पतन निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी। रानी अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं। झलकारी बाई का पति पूरन किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गया लेकिन झलकारी ने बजाय अपने पति की मृत्यु का शोक मनाने के, ब्रिटिशों को धोखा देने की एक योजना बनाई। झलकारी ने लक्ष्मीबाई की तरह कपड़े पहने और झांसी की सेना की कमान अपने हाथ में ले ली। जिसके बाद वह किले के बाहर निकल ब्रिटिश जनरल ह्यूग रोज़ के शिविर में उससे मिलने पहुंचीं।
ब्रिटिश शिविर में पहुँचने पर उसने चिल्लाकर कहा कि वो जनरल ह्यूग रोज़ से मिलना चाहती हैं। रोज़ और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होने झांसी पर कब्जा कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनके कब्ज़े में है। जनरल ह्यूग रोज़ जो उसे रानी ही समझ रहा था, ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए तो उसने दृढ़ता के साथ कहा, मुझे फाँसी दो। जनरल ह्यूग रोज़ झलकारी का साहस और उसकी नेतृत्व क्षमता से बहुत प्रभावित हुआ और झलकारी बाई को रिहा कर दिया गया। इसके विपरीत कुछ इतिहासकार मानते हैं कि झलकारी इस युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हुई।
गुमनाम शहीदों की गाथा में एक बहुत ही बड़ा नाम जो इतिहास के पन्नों में लुप्त हो गया और 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक महान दलित महिला योद्धा की बहादुरी की कहानी बयां करती है वह नाम है झलकारी बाई।