Poet, Author, Blogger
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मैं स्टेशन की सीढ़ीयों से बाहर निकल ही रहा था कि वो सामने से आयी , वास्तव मैं उससे ही मिलने उसके शहर आया था ये पता था कि वो बोलेगी नही फिर भी मैंने नज़रे उठाई ये देखने के लिये क्या वो मुझे देखती है कि नही शायद यही उसने भी सोचा हो फिर क्या जैसे तैसे नज़र लड़ ही गयी । ऐसा लग रहा था कि कुछ तलक धड़कने रुक सी गई । लेकिन आज उसके चेहरे का अज़ीब सा ही भाव था जैसे कि कोई फैसला करने आई हो ,मैं वही सीढियों पर ही रैलिंग के पास रुक गया, वो मेरी तरफ़ बढ़ने लगी मेरी शरीर हल्की से ढ़ीली पड़ रही थी इसलिए मैंने टेक ले लिया,वो पास आयी और बोली कि मैं तुमसे ही मिलने ही आ रही थी अच्छा हुआ तुम ख़ुद ही आ गए चलो रेस्तरां चलते है चाय भी पी लेंगे और कुछ ज़रूरी बात भी करनी है।
फिर हम लोग रेस्तराँ के लिये चल दिये। पास के ही एक रेस्तराँ हम गये ….…चाय-वाय हो ही रही थी कि मैंने पूछा कि बताईये क्या बात है ? उसने कहा कुछ नही फिर भी कही बताओ कैसे हो, औपचारिकता दर्शाते हुए।
मैं…ठीक हूँ
वो… मैं भी
मैं…आजकल मन मे कुछ ऐठन सी लगी रहती है।
वो… क्यों
मैं…क्या तुम्हें ऐसा कुछ नही होता
वो…नही
मैं…क्या तुमने बात की घर में
वो…नही क्यों ये पूछने पर बोली कि मुझें पता है कि वो क्या कहेंगे।
मैं…अच्छा क्या कहेंगे , अरे जाने भी दो ना
वो… अरे समाज नही स्वीकार करेगा
मैं…तो क्या हुआ तुम्हें स्वीकार है न,
हम दोनों एक दूसरे को कितना चाहते है
हाँ मगर
क्या मगर
अरे अरे अरे कही तुम्हारे मन मे कोई शक तो नहीं
वो…. कोई शक नही है
तुम बहुत अच्छे हो पढ़े लिखे हो, तुम्हारा हृदय भी विशाल है सब कुछ अच्छा है, पर हम एक नही हो सकते,
क्यों ये मैं पूछा?
फिर कोई उत्तर नही आया, हम दोनों कुछ पल के लिये चुप से हो गए
वो….ठीक है मैं जा रही हूँ फिर
मैं …ठीक है पर मेरे प्रश्न का उत्तर दे देना
वो…ये बात तुम अपने घरवालों से पूछो तो बेहतर होगा
वाकई में वो एक ब्राम्हण परिवार से ताल्लुक़ रखती थी और मैं दलित।
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क्या करें,
इंसान खुद से हार जाता है
वैराग्य की उत्कण्ठा को
हर रोज जगाता है।
क्या करें,
इंसान खुद से हार जाता है
मन की चंचलता भी कुछ कम नहीं,
मान अपमान का इसे कोई गम नहीं,
इसिलिये कभी सराहा,
कभी दुतकारा जाता है।
क्या करें
इंसान खुद से हार जाता है।
मन भी क्या करे
उसकी चाबुक दिल के पास जो है।
दिल भी क्या करे,
उसे कुछ विशेष पाने की आस जो है।
उसी से कोई तड़प रहा है,
कोई उसे मार जाता है।
क्या करें
इंसान खुद से हार जाता है।
वैराग्य की उत्कण्ठा को हर रोज जगाता है।
क्या करें
इंसान खुद से हार जाता है।
Comments closedक्या करें इंसान खुद से हार जाता है। वैराग्य की उत्कण्ठा को , हर रोज जगाता है।
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@atalforindia @narayanatal
निश्छल निष्कपट झपट के लिपट लिपट मचलता स्नेह अमिट हर पल निकट निकट हे जन्म दायिनी भयहारिणी सुखदायनी मां ना आंखों से ओझल ना एक आह सुन पाती है हे जग जननी देवी तूँ माँ कहलाती है वह मचलाता का बचपन जब आंखें थी चमचम संघ संघ तेरा मन और पैजनिया छम छम गिरत परत फिर लिपट लिपट फिर गिरत गिरत तू उठाती मां लगत कंठ फिर चूमत चूमत झपट के दिल से लगाती माँ ना हाथों से छोड़त ना तनिक दूर रह पाती है हे जग जननी देवी तूँ माँ कहलाती है मेरे दुख के एक एक आंसू को पिया है तुमने मेरे खातिर पेट काटकर जीया है तुमने मेरी हर इच्छा को स्नेहमई सीने से लगाने वाली माँ परमेश्वरी परमात्मा को भी दूध पिलाने वाली माँ ना आंखों से ओझल ना एक आह सुन पाती है हे जग जननी देवी तूँ माँ कहलाती है मेरा ठुमक ठुमक चलना तेरा दौड़-दौड़ आना मां एक कौर के खातिर, तेरा सौ सौ बहाना मेरे तुतलाने पर मंद-मंद छुपके मुस्कुराने वाली माँ लल्ला खातिर ईश्वर से भी बात लड़ाने वाली माँ ना हाथों से छोड़त, एक आह सुन पाती है हे जग जननी देवी तूँ माँ कहलाती है करुणा मई माता तेरे खातिर मर ना जाऊं तो निष्फल मातृ भक्त के खातिर कुछ मैं कर न जाऊं तो निष्फल ये माता कोई और नही ये अपनी भारत माता है अपने लालों की चिंता में माता का जी घबराता है ये फफक फफक कर रोती है जब आपस मे हम लड़ते है क्यों अपने रक्त से सिंचित कर माता को आहत करते है माता की गोदी में सबको आँधी भी न छू पायेगी जब हृष्ट पुष्ट माता होगी आंचल से हमें बचाएगीComments closed
गुमनाम शहीदों की गाथा में एक बहुत ही बड़ा नाम जो इतिहास के पन्नों में लुप्त हो गया और 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक महान दलित महिला योद्धा की बहादुरी की कहानी बयां करती है वह नाम है झलकारी बाई। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिलाओं की एक शाखा थी, जिसकी सेनापति वीरांगना झलकारी बाई थीं।
झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास के भोजला गाँव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी थी, और उनके पिता ने उन्हें एक लड़के की तरह पाला था। उन्हें घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग करने में प्रशिक्षित किया गया था। उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों के कारण उन्हें कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं हो पाई, लेकिन उन्होनें खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था।
झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं का रख-रखाव और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थीं। एक बार जंगल में उसकी मुठभेड़ एक तेंदुए से हो गयी थी और झलकारी ने अपनी कुल्हाड़ी से उस तेंदुआ को मार डाला था। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था।
उनकी इस बहादुरी से खुश होकर गाँव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से करवा दिया। पूरन भी बहुत बहादुर था और पूरी सेना उसकी बहादुरी का लोहा मानती थी। एक बार गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले में गईं, वहाँ रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक रह गईं, क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं।
दोनों के रूप में आलौकिक समानता थी। अन्य औरतों से झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनकर रानी लक्ष्मीबाई बहुत प्रभावित हुईं। रानी ने झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दिया। झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलानाए तोप चलाना और तलवारबाजी की प्रशिक्षण लिया। यह वह समय था जब झांसी की सेना को किसी भी ब्रिटिश दुस्साहस का सामना करने के लिए मजबूत बनाया जा रहा था।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं। इस कारण शत्रु को गुमराह करने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। अपने अंतिम समय में भी वे रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अंग्रेज़ों के हाथों पकड़ी गयीं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। उन्होंने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी के साथ ब्रिटिश सेना के विरुद्ध अद्भुत वीरता से लड़ते हुए ब्रिटिश सेना के कई हमलों को विफल किया था। यदि लक्ष्मीबाई के सेनानायकों में से एक ने उनके साथ विश्वासघात न किया होता तो झांसी का किला ब्रिटिश सेना के लिए अभेद्य था।
झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया है। उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर, राजस्थान में निर्माणाधीन है।उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित है। लार्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के चलते, ब्रिटिशों ने निःसंतान लक्ष्मीबाई को उनका उत्तराधिकारी गोद लेने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि वे ऐसा करके राज्य को अपने नियंत्रण में लाना चाहते थे। हालांकि ब्रिटिश की इस कार्रवाई के विरोध में रानी के सारी सेना, उसके सेना नायक और झांसी के लोग रानी के साथ लामबंद हो गये और उन्होने आत्मसमर्पण करने के बजाय ब्रिटिशों के खिलाफ हथियार उठाने का संकल्प लिया।
अप्रैल 1857 के दौरान लक्ष्मीबाई ने झांसी के किले के भीतर से अपनी सेना का नेतृत्व किया और ब्रिटिश और उनके स्थानीय सहयोगियों द्वारा किये कई हमलों को नाकाम कर दिया। रानी के सेनानायकों में से एक दूल्हेराव ने उसे धोखा दिया और किले का एक संरक्षित द्वार ब्रिटिश सेना के लिए खोल दिया। जब किले का पतन निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी। रानी अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं। झलकारी बाई का पति पूरन किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गया लेकिन झलकारी ने बजाय अपने पति की मृत्यु का शोक मनाने के, ब्रिटिशों को धोखा देने की एक योजना बनाई। झलकारी ने लक्ष्मीबाई की तरह कपड़े पहने और झांसी की सेना की कमान अपने हाथ में ले ली। जिसके बाद वह किले के बाहर निकल ब्रिटिश जनरल ह्यूग रोज़ के शिविर में उससे मिलने पहुंचीं।
ब्रिटिश शिविर में पहुँचने पर उसने चिल्लाकर कहा कि वो जनरल ह्यूग रोज़ से मिलना चाहती हैं। रोज़ और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होने झांसी पर कब्जा कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनके कब्ज़े में है। जनरल ह्यूग रोज़ जो उसे रानी ही समझ रहा था, ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए तो उसने दृढ़ता के साथ कहा, मुझे फाँसी दो। जनरल ह्यूग रोज़ झलकारी का साहस और उसकी नेतृत्व क्षमता से बहुत प्रभावित हुआ और झलकारी बाई को रिहा कर दिया गया। इसके विपरीत कुछ इतिहासकार मानते हैं कि झलकारी इस युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हुई।
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#UPKaCulture
भारतीय क्रांतिकारी इतिहास में
चित्तू पांडे वह नाम है
जिसके नेतृत्व में बलिया भारत में
सबसे पहले आजाद हुआ था।
चित्तू पांडे शेरे बलिया के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस नाम को इतिहास भले ही उपयुक्त स्थान नही दिया लेकिन उनके द्वारा कोटि कोटि हृदयों में जलाई गई आज़ादी की अलख की लपटें आज भी ज़िंदा हैं। उनके व्यक्तित्व की महानता इस बात से ही लगाई जा सकती है कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जवाहरलाल नेहरू ने जेल से छूटने के बाद कहा था कि मैं पहले बलिया की स्वाधीन धरती पर जाऊंगा और चित्तू पांडे से मिलूंगा।
कलेक्टर का आत्मसमर्पण
बात 19 अगस्त 1942 की है जब चित्तू पांडे ने आम जनमानस में क्रांतिकारी और भारत की आजादी की ऐसी अलख जगाई जिसके दबाव में आकर के बलिया जिले के कलेक्टर ने आत्मसमर्पण कर दिया। जनता का हुजूम इतना था की कलेक्टर को दबाव में आकर चित्तू पांडे को जेल से रिहा करना पड़ा।उनके साथ उनके साथियों को भी बरी कर दिया गया।
राष्ट्रीय सरकार का गठन
क्रांतिकारियों के हुजूम और जुनून को इस बात से ही आप समझ सकते हैं कि चित्तू पांडे की रिहाई के क्रियाकलाप में थोड़ी देरी हो गई तो लोगों ने जेल के फाटक तक दिए। इसके बाद क्रांतिकारियों ने कलेक्ट्री पर कब्जा कर लिया और चित्तू पांडे को वहां का जिलाधिकारी घोषित कर दिया। सारे सरकारी कर्मचारी पुलिस लाइन में बंद कर दिए गए और हनुमानगंज कोठी में राष्ट्रीय सरकार का मुख्यालय कायम किया गया।
अंग्रेजों का पलटवार
यह सरकार ज्यादा दिन तक नहीं चल पाई सरकार को अभी तीन ही दिन हुए थे कि 22 अगस्त को 2:30 बजे रात में रेलगाड़ी से अंग्रेजों की सेना की टुकड़ी बलिया पहुंची। नीदर रसूल ने मिस्टर वाकर को नया जिला अधिकारी नियुक्त किया।
23 अगस्त को नदी के रास्ते सेना की दूसरी टुकड़ी भी पटना से भी बलिया पहुंच गई। इसके बाद अंग्रेजों ने आंदोलनकारियों के बहुत ही बर्बरता के साथ दमन कर दिया। आंदोलनकारियों को अदालत में पेश किया गया। उन्हें 20-20 बेंत और 7 साल की सजा सुनाई गई किसी को नंगा करके पीटा। किसी को हाथी के पांव में बांधकर घसीटा, कितनों के घरों को नष्ट कर दिया गया।
वह आलम इतना भयावह था, रूह कांप जाती है। लेकिन उसके बाद भी आंदोलनकारियों के मन में बस एक ही आग जल रही थी देश की आजादी… गांव पर सामूहिक जुर्माना लगा दिया गया। चित्तू पांडे को भूमिगत होना पड़ा। आजादी चाहे 3 दिन की हो लेकिन भारतीय स्वतंत्रता की आजादी के आंदोलन के इतिहास में चित्तू पांडे जी का नाम सदैव अमर रहेगा।
वह बलिया का शेर थे
नेतृत्वकर्ता वाक्यपटु
वीर धीर गंभीर थे
आँखों में परतंत्रता से
स्वतंत्र होने का सपना लिए
लड़ पड़े अंग्रेजों से
जान की परवाह बिना किए
अमर रहेगी वीरता
अमर रहेगा त्याग
देश सर्वदा करता रहेगा
उन वीर सपूतों को याद
‘गुमनाम शहीदों की गाथा ‘ लेखक अटल नारायण
अज्ञात अंतर्मन अज्ञात अंतर्मन
गगन का खालीपन,
शीतल सागर में खारापन
अज्ञात अंतर्मन अज्ञात अंतर्मन
तन्मयता उत्प्रेरित करके,
चेतनता प्रकाशित करके
कामोचित विषयो में,
उत्फुल्लित करता पागल
अज्ञात अंतर्मन अज्ञात अंतर्मन
मेरे कर्मेन्द्रियों को कर्ता बनाकर कर्म करने को ,
आकर्षित तो करता है
अगले ही छण उन्ही इन्द्रियों को भोगो में लगाकर ,
प्रतिकर्षित भी करता है
विकट स्थिति बन गई यारो ,
काया है विकल
अज्ञात अंतर्मन अज्ञात अंतर्मन।
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उगलेगी ये प्यार
पापियों को देख देख कर
बन गयी ये तलवार
बन गयी ये तलवार
वार न जाये खाली
इसीलिए तलवार छोड़
फिर कलम उठा ली