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Article by Atal Narayan

लखनऊ रेजीडेंसी में आज भी दिखती है : 1857 के ग़दर की शौर्य गाथा के निशान

आजादी की पहली लड़ाई की गवाह रही लखनऊ की रेजीडेंसी का आज भ्रमण करने की सोचा, फिर क्या निकल पड़ा सफ़र पे…….रेसीडेंसी का इतिहास हमें उस वक़्त में ले जायेगा जब लखनऊ पर नवाबों का हुकूमत हुआ करता था और ब्रिटिश सरकार भी भारत में अपनी पकड़ मजबूत करती जा रही थी। जब असफ़ उद दौला ने अपनी राजधानी फैजाबाद से स्थानांतरित करके लखनऊ किया तब वहां की बस्ती गई कॉलोनी भी साथ स्थानांतरित हुई और नवाब साहब ने लखनऊ में ब्रिटिश आवास के निर्माण की बात पर अपनी मुहर लगाई।

इतिहास को खंगालने पर पता चला कि यह जंग 1 जुलाई से 17 नवम्बर 1857 तक जारी रही थी।रेजीडेंसी का निर्माण 1774 में नवाब शुजाउद्दौला ने अंग्रेज रेजिडेंट के लिए कराया था। इसलिए इसे रेजीडेंसी कहा जाता है। नवाब आसफ़ुद्दौला ने 1775 में अवध की राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित करने के बाद रेजिडेंट के निवास के लिए इसका निर्माण शुरू किया और नवाब सआदत अली खा ने इसे पूरा किया।

1857 में क्रांतिकारियों द्वारा 5 महीनों की ऐतिहासिक घेराबंदी के दौरान रेजीडेंसी की इमारतें गोलाबारी से बुरी तरह क्षतिग्रस्त या पूरी तरह धराशाई हो गई थी। यहां आज भी गदर के निशान देखे जा सकते हैं।

लगभग 33 एकड़ क्षेत्रफल में निर्मित रेजीडेंसी में आज भी आजादी के जंग की तमाम निशानियों को संजोए हुए खंडहर के रूप में सीढ़ीदार लॉन और बगीचों से घिरा हुआ है।इसे 1851 में 16897 रुपये की लागत से बनवाया गया। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय इस भवन के मध्य भाग को इनफील्ड कारतूस बनाने के कारखाने के रूप में इस्तेमाल किया गया।यहां कब्रिस्तान भी है जिसमें 2000 पुरुषों, महिलाओं और बच्चों सहित सर हेनरी लॉरेंस की भी कब्र है। जिनकी मौत घेराबंदी के दौरान हुई थी।

चिनहट की लड़ाई के अगले दिन 30 जून 1857 को सैय्यद बरकत अहमद के नेतृत्व में भारतीय क्रांतिकारियों ने इस विदेशी गढ़ पर गोलीबारी शुरू कर दी। 86 दिन तक क्रांतिकारियों ने यहां अपना कब्जा रखा। बेली गारद गेट से अंदर जाने के बाद दाहिने हाथ पर खंडहर सा दिखने वाला भवन उस जमाने में कोषागार भवन हुआ करता था।  

रेजीडेंसी परिसर में ही खंडहर सा दिखने वाला एक भवन उस जमाने में डॉ. फेयरर का घर हुआ करता था. 1857 में जब घेराबंदी हुई उस दौरान वह रेजिडेंट सर्जन थे। क्रांतिकारियों के हमले में जो लोग घायल होते थे उनका इलाज इसी भवन में किया जाता था। इस भवन में एक तहखाना भी था जो आज भी देखा जा सकता है। क्रांतिकारियों ने जब घेराबंदी की तो महिलाओं और बच्चों को अंग्रेजों ने यहीं सुरक्षित रखा था।

ऐसा कहा जाता है कि यह 2 मंजिला इमारत इस पूरे परिसर में संभवत सबसे भव्य थी जिसके शानदार कक्ष और सभागार कीमती झाड़ फानूस, आइनो और रेशमी दीवान से सजे थे। यहाँ सम्मान में दावते की जाती थी। सभागार में कीमती फर्नीचर के साथ ही उच्च कोटि की कारीगरी की गई थी। छत तक पहुंचने के लिए घुमावदार सीढ़ियां बनी थी. इसकी छत इतालवी लोहे की छड़ों से सुरक्षित थी। इमारत में गहरे तहखाने थे जिनसे अंग्रेजों को लखनऊ की भयंकर गर्मियों में काफी राहत मिलती थी।

आइए जानते हैं यहाँ की कुछ मुख्य इमारतों के बारे में

* बैले गेट और कोषागार भवन
* भोजशाला (बैंक्वेट हॉल)
* डॉक्टर फेयरर हाउस
* 1857 मेमोरियल संग्रहालय
* रेसीडेंसी मुख्य इमारत
* बेगम कोठी आदि 

बैले गेट और कोषागार भवन

प्रवेश करने लिए आपको इस द्वार से होकर गुजरना पड़ेगा। यह आज भी प्रवेश द्वार के रूप में कार्य करता है। बैले गार्ड गेट के नाम से मशहूर इस भव्य प्रवेश द्वार का निर्माण नवाब सादत अली खान ने कैप्टन जॉन बैले को एक विशेष सम्मान और सलामी देने के लिए करवाया। इसके साथ निर्मित वॉटर गेट और नौबतखाना अब नष्ट हो चुका है।

प्रवेश करते ही आपकी नजर सबसे पहले दाहिनी तरफ की इमारत पर पड़ेगी जो आज भी गोलों और तोपों के निशान से परिपूर्ण है। इसके सामने की इटकिन की पोस्ट आपको अपनी ओर खींचने का भरपूर कोशिश करेगी। सन् 1851 में इस दोमंजिला इमारत बनकर तैयार हुआ और इसे कोषागार के रूप में प्रयोग किया जाने लगा।

भोजशाला (बैंक्वेट हॉल)

इसके बाद बारी आती है कोषागार से सटे हुए सबसे भव्य इमारत की, जोकि भोजशाला है। पूरी तरह से नष्ट होने के बावजूद आज भी इसके भव्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। इसका निर्माण नवाब सादत अली खान द्वारा ब्रिटिश प्रवासी लोगों और विशिष्ट अतिथियों के स्वागत स्वरूप करवाया गया था। इसको दावतखाना भी बोला जाता था।

इसके निचली मंजिल का फर्श संगमरमर से निर्मित है और इसके अंदर स्थापित एक फव्वारा आज भी स्थापित है। फव्वारे के दोनों तरफ रंगमंच निर्मित है जहां शायद शाम के वक्त रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन होता होगा। दोनों तरफ किनारे सीढ़ियां लगी है जो ऊपर के मंजिल की ओर ले जाती हैं।

इसके सभी कमरे और सभागार कीमती झड़ फनूसो, आइनो और रेशमी दीवान से सुसज्जित थे। यहां नवाब के साथ साथ शाही लोगों के लिए भोज और मनोरंजन का आयोजन होता था। सन् 1857 क्रांति के हमले के दौरान इसको अस्पताल में परिवर्तित किया गए जिसमे सभी घायल सैनिकों का इलाज होता था।

डॉक्टर फेयरर हाउस

जैसे ही मैं भोजशाला से निकलकर बाहर आया तो सामने एक ऊंचाई पर एक अन्य इमारत दिखी जिसके आसपास एक छोटा सा लॉन दिखा। मैंने कुछ पल के लिए सोचा की एक डॉक्टर के लिए इतना आलीशान इमारत? पता लगाने के लिए झट से उसकी ओर दौड़ा।

जानकारी करने पर मालूम हुआ कि डॉक्टर फेयरर रेसीडेंसी के प्रमुख चिकित्सक थे जो वहां के सभी लोगों का इलाज करते थे। यह एकमंजिला भवन है जिसके नीचे के हिस्से में एक तहखाना है।

1857 के हमले के दौरान सभी घायलों का इलाज यहां भी किया जाता था। तहखाने के हिस्से को आवास के रूप में परिवर्तित किया गया था जिसके अंदर महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित रखा गया था। डॉक्टर फेयरर ने उस समय सैकड़ों लोगों का इलाज किया और एक अहम भूमिका निभाई। सर हेनरी लॉरेंस की मृत्यु इसी इमारत में 4 जुलाई को हुई थी।

1857 मेमोरियल संग्रहालय

भोजशाला से कुछ कदम सीधे चलने पर एक विशाल मैदान दिखाई देता है जहां एक स्मारक बना हुए है। यह रेसीडेंसी के सभी स्मारकों में सबसे बड़ा और और दूर से ही अपनी प्रस्तुति देता है। यह स्मारक सर हेनरी लॉरेंस की है जो उस समय सबसे ताकतवर शख्सियत माने जाते थे।स्मारक के पास सामने की ओर दो बड़ी बड़ी तोपें स्थापित है जो शायद उस वक़्त युद्ध में प्रयोग किया गया होगा। ईमारत के पीछे भी दो तोपें स्थित हैं। यही पर एक इमारत के उपरी हिस्से पर शिलापट पर “1857 मेमोरियल संग्रहालय” अंकित है। क्रांति के दौरान प्रयोग किए गए औजारों के साथ साथ जरूरी शिलालेख, पुरानी तस्वीरें, पेंटिग्स, कागजात, बंदूक, तलवार, तोप, और अन्य चीज़ें अच्छी अवस्था में संग्रहित हैं।इसके अलावा रेसीडेंसी का मैप, वास्तविक पत्र, अंग्रेजी अफसरों के साथ साथ नवाबों की चित्रकला सुशोभित हैं। यह स्थान स्वतंत्रता संग्राम की यादों को फिर से तरोताजा करता है और आपको सोच के सागर में ले जाता है।

रेसीडेंसी मुख्य इमारत

तो अब बात करते है मुख्य इमारत की जो एक तीनमंजिला इमारत है। सादत अली खान द्वारा इसका निर्माण करवाया गया और 1857 तक यह अवध के मुख्य कमिश्नर का आवास हुआ करता था। इसमें कुल 2 कमरों के साथ साथ एक तहखाना, बगीचा और एक बरामदा भी है। उपरी हिस्से पर जहां कभी बिलियर्ड्स रूम और लाइब्रेरी हुआ करता था, आज पूर्ण रूप से ध्वस्त अवस्था में है। ईमारत के सामने एक नवनिर्मित स्तम्भ है जो हमले में शहीद सभी सैनिकों की याद में बनाया गया है।

निचले मंजिल पर तीन कमरों के साथ एक मध्य हॉल भी है। सीढ़ियां का तो आप अंदाज़ा है नहीं लगा सकते क्योंकि इसका नामोनिशान तक नहीं है। स्वतंत्रता संग्राम के हमले के दौरान इसको 32वें रेजिमेंट द्वारा संभाला गया और तहखाने का प्रयोग औरतों और बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए किया गया। इसके हिस्सों पर हमले का निशान आज भी मौजूद हैं।

जिस चीज ने मेरे अंदर रक्त का संचार तीव्र किया तो था इसके उपरी हिस्से पर लहराता हुआ भारतीय राष्टीय ध्वज तिरंगा है। वो नज़ारा देखकर हर एक भारतीय का मस्तिष्क गर्व से ऊंचा उठ जाता है। मुख्य इमारत के बाएं ओर एक हिस्से में लाईट एंड साउंड शो का आयोजन होता था जो कुछ समय से बंद चल रहा है।

बेगम कोठी

इस इमारत के निर्माण का श्रेय आसफ उद दौला को जाता है जिन्होंने बाद में इस इमारत को सेक्विल मार्क्स टेलर को बेच दिया, जिन्होंने 1802 में पुनः इसको जॉर्ज प्रेंडरगस्ट को बेच दिया। प्रेंडरगस्ट ने यहां यूरोपीय वस्तुओं की एक दुकान स्थापित कि और कारोबार किया। कुछ समय पश्चात उन्होंने भी इस स्थान को जॉन कैलूदन को बेच दिया। ये भी एक बड़े व्यापारी थे।

कुल मिलाकर अगर आपको भी १८५७ के ग़दर का निशान अपने आँखों से देखना, क्रांतिकारियों के बलिदान को महशूस करना है तो एक बार लखनऊ रेजीडेंसी ज़रूर जाइए। अब इस भवन की छत पर देश की शान तिरंगा लहराता नज़र आता है, उसे देखकर आपका हृदय गर्व से फूल जाएगा।

~अटल नारायण

चित्र: अटल नारायण

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दलित का प्रेम

मैं स्टेशन की सीढ़ीयों से बाहर निकल ही रहा था कि वो सामने से आयी , वास्तव मैं उससे ही मिलने उसके शहर आया था ये पता था कि वो बोलेगी नही फिर भी मैंने नज़रे उठाई ये देखने के लिये क्या वो मुझे देखती है कि नही शायद यही उसने भी सोचा हो फिर क्या जैसे तैसे नज़र लड़ ही गयी । ऐसा लग रहा था कि कुछ तलक धड़कने रुक सी गई । लेकिन आज उसके चेहरे का अज़ीब सा ही भाव था जैसे कि कोई फैसला करने आई हो ,मैं वही सीढियों पर ही रैलिंग के पास रुक गया, वो मेरी तरफ़ बढ़ने लगी मेरी शरीर हल्की से ढ़ीली पड़ रही थी इसलिए मैंने टेक ले लिया,वो पास आयी और बोली कि मैं तुमसे ही मिलने ही आ रही थी अच्छा हुआ तुम ख़ुद ही आ गए चलो रेस्तरां चलते है चाय भी पी लेंगे और कुछ ज़रूरी बात भी करनी है।

Dalit Ka Prem

फिर हम लोग रेस्तराँ के लिये चल दिये। पास के ही एक रेस्तराँ हम गये ….…चाय-वाय हो ही रही थी कि मैंने पूछा कि बताईये क्या बात है ? उसने कहा कुछ नही फिर भी कही बताओ कैसे हो, औपचारिकता दर्शाते हुए।

मैं…ठीक हूँ 

वो… मैं भी

मैं…आजकल मन मे कुछ ऐठन सी लगी रहती है।

वो… क्यों

मैं…क्या तुम्हें ऐसा कुछ नही होता

वो…नही 

मैं…क्या तुमने बात की घर में

वो…नही क्यों ये पूछने पर बोली कि मुझें पता है कि वो क्या कहेंगे।

मैं…अच्छा क्या कहेंगे , अरे जाने भी दो ना

वो… अरे समाज नही स्वीकार करेगा

मैं…तो क्या हुआ तुम्हें स्वीकार है न, 

हम दोनों एक दूसरे को कितना चाहते है

हाँ मगर

क्या मगर

अरे अरे अरे कही तुम्हारे मन मे कोई शक तो नहीं 

वो…. कोई शक नही है 

तुम बहुत अच्छे हो पढ़े लिखे हो, तुम्हारा हृदय भी विशाल है सब कुछ अच्छा है, पर हम एक नही हो सकते, 

क्यों ये मैं पूछा? 

फिर कोई उत्तर नही आया,  हम दोनों कुछ पल के लिये चुप से हो गए

वो….ठीक है मैं जा रही हूँ फिर

मैं …ठीक है पर मेरे प्रश्न का उत्तर दे देना

वो…ये बात तुम अपने घरवालों से पूछो तो बेहतर होगा

वाकई में वो एक ब्राम्हण परिवार से ताल्लुक़ रखती थी और मैं दलित।

 

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एक रूप, समान क़द काठी की थी रानी लक्ष्मी बाई एवं झलकारी बाई : अटल नारायण

गुमनाम शहीदों की गाथा में एक बहुत ही बड़ा नाम जो इतिहास के पन्नों में लुप्त हो गया और 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक महान दलित महिला योद्धा की बहादुरी की कहानी बयां करती है वह नाम है झलकारी बाई। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिलाओं की एक शाखा थी, जिसकी सेनापति वीरांगना झलकारी बाई थीं।

झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास के भोजला गाँव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी थी, और उनके पिता ने उन्हें एक लड़के की तरह पाला था। उन्हें घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग करने में प्रशिक्षित किया गया था। उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों के कारण उन्हें कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं हो पाई, लेकिन उन्होनें खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था।

झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं का रख-रखाव और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थीं। एक बार जंगल में उसकी मुठभेड़ एक तेंदुए से हो गयी थी और झलकारी ने अपनी कुल्हाड़ी से उस तेंदुआ को मार डाला था। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था।

उनकी इस बहादुरी से खुश होकर गाँव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से करवा दिया। पूरन भी बहुत बहादुर था और पूरी सेना उसकी बहादुरी का लोहा मानती थी। एक बार गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले में गईं, वहाँ रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक रह गईं, क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं।

दोनों के रूप में आलौकिक समानता थी। अन्य औरतों से झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनकर रानी लक्ष्मीबाई बहुत प्रभावित हुईं। रानी ने झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दिया। झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलानाए तोप चलाना और तलवारबाजी की प्रशिक्षण लिया। यह वह समय था जब झांसी की सेना को किसी भी ब्रिटिश दुस्साहस का सामना करने के लिए मजबूत बनाया जा रहा था।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं। इस कारण शत्रु को गुमराह करने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। अपने अंतिम समय में भी वे रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अंग्रेज़ों के हाथों पकड़ी गयीं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। उन्होंने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी के साथ ब्रिटिश सेना के विरुद्ध अद्भुत वीरता से लड़ते हुए ब्रिटिश सेना के कई हमलों को विफल किया था। यदि लक्ष्मीबाई के सेनानायकों में से एक ने उनके साथ विश्वासघात न किया होता तो झांसी का किला ब्रिटिश सेना के लिए अभेद्य था।

झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया है। उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर, राजस्थान में निर्माणाधीन है।उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित है। लार्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के चलते, ब्रिटिशों ने निःसंतान लक्ष्मीबाई को उनका उत्तराधिकारी गोद लेने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि वे ऐसा करके राज्य को अपने नियंत्रण में लाना चाहते थे। हालांकि ब्रिटिश की इस कार्रवाई के विरोध में रानी के सारी सेना, उसके सेना नायक और झांसी के लोग रानी के साथ लामबंद हो गये और उन्होने आत्मसमर्पण करने के बजाय ब्रिटिशों के खिलाफ हथियार उठाने का संकल्प लिया।

अप्रैल 1857 के दौरान लक्ष्मीबाई ने झांसी के किले के भीतर से अपनी सेना का नेतृत्व किया और ब्रिटिश और उनके स्थानीय सहयोगियों द्वारा किये कई हमलों को नाकाम कर दिया। रानी के सेनानायकों में से एक दूल्हेराव ने उसे धोखा दिया और किले का एक संरक्षित द्वार ब्रिटिश सेना के लिए खोल दिया। जब किले का पतन निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी। रानी अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं। झलकारी बाई का पति पूरन किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गया लेकिन झलकारी ने बजाय अपने पति की मृत्यु का शोक मनाने के, ब्रिटिशों को धोखा देने की एक योजना बनाई। झलकारी ने लक्ष्मीबाई की तरह कपड़े पहने और झांसी की सेना की कमान अपने हाथ में ले ली। जिसके बाद वह किले के बाहर निकल ब्रिटिश जनरल ह्यूग रोज़ के शिविर में उससे मिलने पहुंचीं।

ब्रिटिश शिविर में पहुँचने पर उसने चिल्लाकर कहा कि वो जनरल ह्यूग रोज़ से मिलना चाहती हैं। रोज़ और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होने झांसी पर कब्जा कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनके कब्ज़े में है। जनरल ह्यूग रोज़ जो उसे रानी ही समझ रहा था, ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए तो उसने दृढ़ता के साथ कहा, मुझे फाँसी दो। जनरल ह्यूग रोज़ झलकारी का साहस और उसकी नेतृत्व क्षमता से बहुत प्रभावित हुआ और झलकारी बाई को रिहा कर दिया गया। इसके विपरीत कुछ इतिहासकार मानते हैं कि झलकारी इस युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हुई।

उनके लिए समर्पित मेरी यह पंक्तियां शायद उनकी वीरता की कहानी बयान कर पाए –

लक्ष्मी तो लक्ष्मी ही थी

झलकारी उनका तेज थीं

त्याग वीरता की प्रतिमूर्ति

रण चण्डी सा रण व करती

अंग्रेजों को नाकों चने

चबाने को मजबूर वह करती

देवी थी या अवतारी थी

व झाँसी की झलकारी थी

गुमनाम शहीदों की गाथा में एक बहुत ही बड़ा नाम जो इतिहास के पन्नों में लुप्त हो गया और 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक महान दलित महिला योद्धा की बहादुरी की कहानी बयां करती है वह नाम है झलकारी बाई।

#UPKaCulture

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बलिया का शेर : चित्तू पांडेय

भारतीय क्रांतिकारी इतिहास में

चित्तू पांडे वह नाम है

जिसके नेतृत्व में बलिया भारत में

सबसे पहले आजाद हुआ था।

चित्तू पांडे शेरे बलिया के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस नाम को इतिहास भले ही उपयुक्त स्थान नही दिया लेकिन उनके द्वारा कोटि कोटि हृदयों में जलाई गई आज़ादी की अलख की लपटें आज भी ज़िंदा हैं। उनके व्यक्तित्व की महानता इस बात से ही लगाई जा सकती है कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जवाहरलाल नेहरू ने जेल से छूटने के बाद कहा था कि मैं पहले बलिया की स्वाधीन धरती पर जाऊंगा और चित्तू पांडे से मिलूंगा।

कलेक्टर का आत्मसमर्पण

बात 19 अगस्त 1942 की है जब चित्तू पांडे ने आम जनमानस में क्रांतिकारी और भारत की आजादी की ऐसी अलख जगाई जिसके दबाव में आकर के बलिया जिले के कलेक्टर ने आत्मसमर्पण कर दिया। जनता का हुजूम इतना था की कलेक्टर को दबाव में आकर चित्तू पांडे को जेल से रिहा करना पड़ा।उनके साथ उनके साथियों को भी बरी कर दिया गया। 

राष्ट्रीय सरकार का गठन 

क्रांतिकारियों के हुजूम और जुनून को इस बात से ही आप समझ सकते हैं कि चित्तू पांडे की रिहाई के क्रियाकलाप में थोड़ी देरी हो गई तो लोगों ने जेल के फाटक तक दिए। इसके बाद क्रांतिकारियों ने कलेक्ट्री पर कब्जा कर लिया और चित्तू पांडे को वहां का जिलाधिकारी घोषित कर दिया। सारे सरकारी कर्मचारी पुलिस लाइन में बंद कर दिए गए और हनुमानगंज कोठी में राष्ट्रीय सरकार का मुख्यालय कायम किया गया। 

 अंग्रेजों का पलटवार 

यह सरकार ज्यादा दिन तक नहीं चल पाई सरकार को अभी तीन ही दिन हुए थे कि 22 अगस्त को 2:30 बजे रात में रेलगाड़ी से अंग्रेजों की सेना की टुकड़ी बलिया पहुंची। नीदर रसूल ने मिस्टर वाकर को नया जिला अधिकारी नियुक्त किया।

23 अगस्त को नदी के रास्ते सेना की दूसरी टुकड़ी भी पटना से भी बलिया पहुंच गई। इसके बाद अंग्रेजों ने आंदोलनकारियों के बहुत ही बर्बरता के साथ दमन कर दिया। आंदोलनकारियों को अदालत में पेश किया गया। उन्हें 20-20 बेंत और 7 साल की सजा सुनाई गई किसी को नंगा करके पीटा। किसी को हाथी के पांव में बांधकर घसीटा, कितनों के घरों को नष्ट कर दिया गया।  

वह आलम इतना भयावह था, रूह कांप जाती है। लेकिन उसके बाद भी आंदोलनकारियों के मन में बस एक ही आग जल रही थी देश की आजादी… गांव पर सामूहिक जुर्माना लगा दिया गया। चित्तू पांडे को भूमिगत होना पड़ा। आजादी चाहे 3 दिन की हो लेकिन भारतीय स्वतंत्रता की आजादी के आंदोलन के  इतिहास में चित्तू पांडे जी का नाम सदैव अमर रहेगा।

वह बलिया का शेर थे 

नेतृत्वकर्ता वाक्यपटु 

वीर धीर गंभीर थे 

आँखों में परतंत्रता से 

स्वतंत्र होने का सपना लिए 

लड़ पड़े अंग्रेजों से 

जान की परवाह बिना किए

अमर रहेगी वीरता 

अमर रहेगा त्याग 

देश सर्वदा करता रहेगा 

उन वीर सपूतों को याद 

‘गुमनाम शहीदों की गाथा ‘ लेखक अटल नारायण
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