आजादी की पहली लड़ाई की गवाह रही लखनऊ की रेजीडेंसी का आज भ्रमण करने की सोचा, फिर क्या निकल पड़ा सफ़र पे…….रेसीडेंसी का इतिहास हमें उस वक़्त में ले जायेगा जब लखनऊ पर नवाबों का हुकूमत हुआ करता था और ब्रिटिश सरकार भी भारत में अपनी पकड़ मजबूत करती जा रही थी। जब असफ़ उद दौला ने अपनी राजधानी फैजाबाद से स्थानांतरित करके लखनऊ किया तब वहां की बस्ती गई कॉलोनी भी साथ स्थानांतरित हुई और नवाब साहब ने लखनऊ में ब्रिटिश आवास के निर्माण की बात पर अपनी मुहर लगाई।
इतिहास को खंगालने पर पता चला कि यह जंग 1 जुलाई से 17 नवम्बर 1857 तक जारी रही थी।रेजीडेंसी का निर्माण 1774 में नवाब शुजाउद्दौला ने अंग्रेज रेजिडेंट के लिए कराया था। इसलिए इसे रेजीडेंसी कहा जाता है। नवाब आसफ़ुद्दौला ने 1775 में अवध की राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित करने के बाद रेजिडेंट के निवास के लिए इसका निर्माण शुरू किया और नवाब सआदत अली खा ने इसे पूरा किया।
1857 में क्रांतिकारियों द्वारा 5 महीनों की ऐतिहासिक घेराबंदी के दौरान रेजीडेंसी की इमारतें गोलाबारी से बुरी तरह क्षतिग्रस्त या पूरी तरह धराशाई हो गई थी। यहां आज भी गदर के निशान देखे जा सकते हैं।
लगभग 33 एकड़ क्षेत्रफल में निर्मित रेजीडेंसी में आज भी आजादी के जंग की तमाम निशानियों को संजोए हुए खंडहर के रूप में सीढ़ीदार लॉन और बगीचों से घिरा हुआ है।इसे 1851 में 16897 रुपये की लागत से बनवाया गया। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय इस भवन के मध्य भाग को इनफील्ड कारतूस बनाने के कारखाने के रूप में इस्तेमाल किया गया।यहां कब्रिस्तान भी है जिसमें 2000 पुरुषों, महिलाओं और बच्चों सहित सर हेनरी लॉरेंस की भी कब्र है। जिनकी मौत घेराबंदी के दौरान हुई थी।
चिनहट की लड़ाई के अगले दिन 30 जून 1857 को सैय्यद बरकत अहमद के नेतृत्व में भारतीय क्रांतिकारियों ने इस विदेशी गढ़ पर गोलीबारी शुरू कर दी। 86 दिन तक क्रांतिकारियों ने यहां अपना कब्जा रखा। बेली गारद गेट से अंदर जाने के बाद दाहिने हाथ पर खंडहर सा दिखने वाला भवन उस जमाने में कोषागार भवन हुआ करता था।
रेजीडेंसी परिसर में ही खंडहर सा दिखने वाला एक भवन उस जमाने में डॉ. फेयरर का घर हुआ करता था. 1857 में जब घेराबंदी हुई उस दौरान वह रेजिडेंट सर्जन थे। क्रांतिकारियों के हमले में जो लोग घायल होते थे उनका इलाज इसी भवन में किया जाता था। इस भवन में एक तहखाना भी था जो आज भी देखा जा सकता है। क्रांतिकारियों ने जब घेराबंदी की तो महिलाओं और बच्चों को अंग्रेजों ने यहीं सुरक्षित रखा था।
ऐसा कहा जाता है कि यह 2 मंजिला इमारत इस पूरे परिसर में संभवत सबसे भव्य थी जिसके शानदार कक्ष और सभागार कीमती झाड़ फानूस, आइनो और रेशमी दीवान से सजे थे। यहाँ सम्मान में दावते की जाती थी। सभागार में कीमती फर्नीचर के साथ ही उच्च कोटि की कारीगरी की गई थी। छत तक पहुंचने के लिए घुमावदार सीढ़ियां बनी थी. इसकी छत इतालवी लोहे की छड़ों से सुरक्षित थी। इमारत में गहरे तहखाने थे जिनसे अंग्रेजों को लखनऊ की भयंकर गर्मियों में काफी राहत मिलती थी।
आइए जानते हैं यहाँ की कुछ मुख्य इमारतों के बारे में
* बैले गेट और कोषागार भवन
* भोजशाला (बैंक्वेट हॉल)
* डॉक्टर फेयरर हाउस
* 1857 मेमोरियल संग्रहालय
* रेसीडेंसी मुख्य इमारत
* बेगम कोठी आदि
बैले गेट और कोषागार भवन
प्रवेश करने लिए आपको इस द्वार से होकर गुजरना पड़ेगा। यह आज भी प्रवेश द्वार के रूप में कार्य करता है। बैले गार्ड गेट के नाम से मशहूर इस भव्य प्रवेश द्वार का निर्माण नवाब सादत अली खान ने कैप्टन जॉन बैले को एक विशेष सम्मान और सलामी देने के लिए करवाया। इसके साथ निर्मित वॉटर गेट और नौबतखाना अब नष्ट हो चुका है।
प्रवेश करते ही आपकी नजर सबसे पहले दाहिनी तरफ की इमारत पर पड़ेगी जो आज भी गोलों और तोपों के निशान से परिपूर्ण है। इसके सामने की इटकिन की पोस्ट आपको अपनी ओर खींचने का भरपूर कोशिश करेगी। सन् 1851 में इस दोमंजिला इमारत बनकर तैयार हुआ और इसे कोषागार के रूप में प्रयोग किया जाने लगा।
भोजशाला (बैंक्वेट हॉल)
इसके बाद बारी आती है कोषागार से सटे हुए सबसे भव्य इमारत की, जोकि भोजशाला है। पूरी तरह से नष्ट होने के बावजूद आज भी इसके भव्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। इसका निर्माण नवाब सादत अली खान द्वारा ब्रिटिश प्रवासी लोगों और विशिष्ट अतिथियों के स्वागत स्वरूप करवाया गया था। इसको दावतखाना भी बोला जाता था।
इसके निचली मंजिल का फर्श संगमरमर से निर्मित है और इसके अंदर स्थापित एक फव्वारा आज भी स्थापित है। फव्वारे के दोनों तरफ रंगमंच निर्मित है जहां शायद शाम के वक्त रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन होता होगा। दोनों तरफ किनारे सीढ़ियां लगी है जो ऊपर के मंजिल की ओर ले जाती हैं।
इसके सभी कमरे और सभागार कीमती झड़ फनूसो, आइनो और रेशमी दीवान से सुसज्जित थे। यहां नवाब के साथ साथ शाही लोगों के लिए भोज और मनोरंजन का आयोजन होता था। सन् 1857 क्रांति के हमले के दौरान इसको अस्पताल में परिवर्तित किया गए जिसमे सभी घायल सैनिकों का इलाज होता था।
डॉक्टर फेयरर हाउस
जैसे ही मैं भोजशाला से निकलकर बाहर आया तो सामने एक ऊंचाई पर एक अन्य इमारत दिखी जिसके आसपास एक छोटा सा लॉन दिखा। मैंने कुछ पल के लिए सोचा की एक डॉक्टर के लिए इतना आलीशान इमारत? पता लगाने के लिए झट से उसकी ओर दौड़ा।
जानकारी करने पर मालूम हुआ कि डॉक्टर फेयरर रेसीडेंसी के प्रमुख चिकित्सक थे जो वहां के सभी लोगों का इलाज करते थे। यह एकमंजिला भवन है जिसके नीचे के हिस्से में एक तहखाना है।
1857 के हमले के दौरान सभी घायलों का इलाज यहां भी किया जाता था। तहखाने के हिस्से को आवास के रूप में परिवर्तित किया गया था जिसके अंदर महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित रखा गया था। डॉक्टर फेयरर ने उस समय सैकड़ों लोगों का इलाज किया और एक अहम भूमिका निभाई। सर हेनरी लॉरेंस की मृत्यु इसी इमारत में 4 जुलाई को हुई थी।
1857 मेमोरियल संग्रहालय
भोजशाला से कुछ कदम सीधे चलने पर एक विशाल मैदान दिखाई देता है जहां एक स्मारक बना हुए है। यह रेसीडेंसी के सभी स्मारकों में सबसे बड़ा और और दूर से ही अपनी प्रस्तुति देता है। यह स्मारक सर हेनरी लॉरेंस की है जो उस समय सबसे ताकतवर शख्सियत माने जाते थे।स्मारक के पास सामने की ओर दो बड़ी बड़ी तोपें स्थापित है जो शायद उस वक़्त युद्ध में प्रयोग किया गया होगा। ईमारत के पीछे भी दो तोपें स्थित हैं। यही पर एक इमारत के उपरी हिस्से पर शिलापट पर “1857 मेमोरियल संग्रहालय” अंकित है। क्रांति के दौरान प्रयोग किए गए औजारों के साथ साथ जरूरी शिलालेख, पुरानी तस्वीरें, पेंटिग्स, कागजात, बंदूक, तलवार, तोप, और अन्य चीज़ें अच्छी अवस्था में संग्रहित हैं।इसके अलावा रेसीडेंसी का मैप, वास्तविक पत्र, अंग्रेजी अफसरों के साथ साथ नवाबों की चित्रकला सुशोभित हैं। यह स्थान स्वतंत्रता संग्राम की यादों को फिर से तरोताजा करता है और आपको सोच के सागर में ले जाता है।
रेसीडेंसी मुख्य इमारत
तो अब बात करते है मुख्य इमारत की जो एक तीनमंजिला इमारत है। सादत अली खान द्वारा इसका निर्माण करवाया गया और 1857 तक यह अवध के मुख्य कमिश्नर का आवास हुआ करता था। इसमें कुल 2 कमरों के साथ साथ एक तहखाना, बगीचा और एक बरामदा भी है। उपरी हिस्से पर जहां कभी बिलियर्ड्स रूम और लाइब्रेरी हुआ करता था, आज पूर्ण रूप से ध्वस्त अवस्था में है। ईमारत के सामने एक नवनिर्मित स्तम्भ है जो हमले में शहीद सभी सैनिकों की याद में बनाया गया है।
निचले मंजिल पर तीन कमरों के साथ एक मध्य हॉल भी है। सीढ़ियां का तो आप अंदाज़ा है नहीं लगा सकते क्योंकि इसका नामोनिशान तक नहीं है। स्वतंत्रता संग्राम के हमले के दौरान इसको 32वें रेजिमेंट द्वारा संभाला गया और तहखाने का प्रयोग औरतों और बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए किया गया। इसके हिस्सों पर हमले का निशान आज भी मौजूद हैं।
जिस चीज ने मेरे अंदर रक्त का संचार तीव्र किया तो था इसके उपरी हिस्से पर लहराता हुआ भारतीय राष्टीय ध्वज तिरंगा है। वो नज़ारा देखकर हर एक भारतीय का मस्तिष्क गर्व से ऊंचा उठ जाता है। मुख्य इमारत के बाएं ओर एक हिस्से में लाईट एंड साउंड शो का आयोजन होता था जो कुछ समय से बंद चल रहा है।
बेगम कोठी
इस इमारत के निर्माण का श्रेय आसफ उद दौला को जाता है जिन्होंने बाद में इस इमारत को सेक्विल मार्क्स टेलर को बेच दिया, जिन्होंने 1802 में पुनः इसको जॉर्ज प्रेंडरगस्ट को बेच दिया। प्रेंडरगस्ट ने यहां यूरोपीय वस्तुओं की एक दुकान स्थापित कि और कारोबार किया। कुछ समय पश्चात उन्होंने भी इस स्थान को जॉन कैलूदन को बेच दिया। ये भी एक बड़े व्यापारी थे।
कुल मिलाकर अगर आपको भी १८५७ के ग़दर का निशान अपने आँखों से देखना, क्रांतिकारियों के बलिदान को महशूस करना है तो एक बार लखनऊ रेजीडेंसी ज़रूर जाइए। अब इस भवन की छत पर देश की शान तिरंगा लहराता नज़र आता है, उसे देखकर आपका हृदय गर्व से फूल जाएगा।
~अटल नारायण
चित्र: अटल नारायण