मैं स्टेशन की सीढ़ीयों से बाहर निकल ही रहा था कि वो सामने से आयी , वास्तव मैं उससे ही मिलने उसके शहर आया था ये पता था कि वो बोलेगी नही फिर भी मैंने नज़रे उठाई ये देखने के लिये क्या वो मुझे देखती है कि नही शायद यही उसने भी सोचा हो फिर क्या जैसे तैसे नज़र लड़ ही गयी । ऐसा लग रहा था कि कुछ तलक धड़कने रुक सी गई । लेकिन आज उसके चेहरे का अज़ीब सा ही भाव था जैसे कि कोई फैसला करने आई हो ,मैं वही सीढियों पर ही रैलिंग के पास रुक गया, वो मेरी तरफ़ बढ़ने लगी मेरी शरीर हल्की से ढ़ीली पड़ रही थी इसलिए मैंने टेक ले लिया,वो पास आयी और बोली कि मैं तुमसे ही मिलने ही आ रही थी अच्छा हुआ तुम ख़ुद ही आ गए चलो रेस्तरां चलते है चाय भी पी लेंगे और कुछ ज़रूरी बात भी करनी है।
फिर हम लोग रेस्तराँ के लिये चल दिये। पास के ही एक रेस्तराँ हम गये ….…चाय-वाय हो ही रही थी कि मैंने पूछा कि बताईये क्या बात है ? उसने कहा कुछ नही फिर भी कही बताओ कैसे हो, औपचारिकता दर्शाते हुए।
मैं…ठीक हूँ
वो… मैं भी
मैं…आजकल मन मे कुछ ऐठन सी लगी रहती है।
वो… क्यों
मैं…क्या तुम्हें ऐसा कुछ नही होता
वो…नही
मैं…क्या तुमने बात की घर में
वो…नही क्यों ये पूछने पर बोली कि मुझें पता है कि वो क्या कहेंगे।
मैं…अच्छा क्या कहेंगे , अरे जाने भी दो ना
वो… अरे समाज नही स्वीकार करेगा
मैं…तो क्या हुआ तुम्हें स्वीकार है न,
हम दोनों एक दूसरे को कितना चाहते है
हाँ मगर
क्या मगर
अरे अरे अरे कही तुम्हारे मन मे कोई शक तो नहीं
वो…. कोई शक नही है
तुम बहुत अच्छे हो पढ़े लिखे हो, तुम्हारा हृदय भी विशाल है सब कुछ अच्छा है, पर हम एक नही हो सकते,
क्यों ये मैं पूछा?
फिर कोई उत्तर नही आया, हम दोनों कुछ पल के लिये चुप से हो गए
वो….ठीक है मैं जा रही हूँ फिर
मैं …ठीक है पर मेरे प्रश्न का उत्तर दे देना
वो…ये बात तुम अपने घरवालों से पूछो तो बेहतर होगा
वाकई में वो एक ब्राम्हण परिवार से ताल्लुक़ रखती थी और मैं दलित।