क्या करें,
इंसान खुद से हार जाता है
वैराग्य की उत्कण्ठा को
हर रोज जगाता है।
क्या करें,
इंसान खुद से हार जाता है
मन की चंचलता भी कुछ कम नहीं,
मान अपमान का इसे कोई गम नहीं,
इसिलिये कभी सराहा,
कभी दुतकारा जाता है।
क्या करें
इंसान खुद से हार जाता है।
मन भी क्या करे
उसकी चाबुक दिल के पास जो है।
दिल भी क्या करे,
उसे कुछ विशेष पाने की आस जो है।
उसी से कोई तड़प रहा है,
कोई उसे मार जाता है।
क्या करें
इंसान खुद से हार जाता है।
वैराग्य की उत्कण्ठा को हर रोज जगाता है।
क्या करें
इंसान खुद से हार जाता है।
क्या करें इंसान खुद से हार जाता है। वैराग्य की उत्कण्ठा को , हर रोज जगाता है।
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