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Month: October 2022

दलित का प्रेम

मैं स्टेशन की सीढ़ीयों से बाहर निकल ही रहा था कि वो सामने से आयी , वास्तव मैं उससे ही मिलने उसके शहर आया था ये पता था कि वो बोलेगी नही फिर भी मैंने नज़रे उठाई ये देखने के लिये क्या वो मुझे देखती है कि नही शायद यही उसने भी सोचा हो फिर क्या जैसे तैसे नज़र लड़ ही गयी । ऐसा लग रहा था कि कुछ तलक धड़कने रुक सी गई । लेकिन आज उसके चेहरे का अज़ीब सा ही भाव था जैसे कि कोई फैसला करने आई हो ,मैं वही सीढियों पर ही रैलिंग के पास रुक गया, वो मेरी तरफ़ बढ़ने लगी मेरी शरीर हल्की से ढ़ीली पड़ रही थी इसलिए मैंने टेक ले लिया,वो पास आयी और बोली कि मैं तुमसे ही मिलने ही आ रही थी अच्छा हुआ तुम ख़ुद ही आ गए चलो रेस्तरां चलते है चाय भी पी लेंगे और कुछ ज़रूरी बात भी करनी है।

Dalit Ka Prem

फिर हम लोग रेस्तराँ के लिये चल दिये। पास के ही एक रेस्तराँ हम गये ….…चाय-वाय हो ही रही थी कि मैंने पूछा कि बताईये क्या बात है ? उसने कहा कुछ नही फिर भी कही बताओ कैसे हो, औपचारिकता दर्शाते हुए।

मैं…ठीक हूँ 

वो… मैं भी

मैं…आजकल मन मे कुछ ऐठन सी लगी रहती है।

वो… क्यों

मैं…क्या तुम्हें ऐसा कुछ नही होता

वो…नही 

मैं…क्या तुमने बात की घर में

वो…नही क्यों ये पूछने पर बोली कि मुझें पता है कि वो क्या कहेंगे।

मैं…अच्छा क्या कहेंगे , अरे जाने भी दो ना

वो… अरे समाज नही स्वीकार करेगा

मैं…तो क्या हुआ तुम्हें स्वीकार है न, 

हम दोनों एक दूसरे को कितना चाहते है

हाँ मगर

क्या मगर

अरे अरे अरे कही तुम्हारे मन मे कोई शक तो नहीं 

वो…. कोई शक नही है 

तुम बहुत अच्छे हो पढ़े लिखे हो, तुम्हारा हृदय भी विशाल है सब कुछ अच्छा है, पर हम एक नही हो सकते, 

क्यों ये मैं पूछा? 

फिर कोई उत्तर नही आया,  हम दोनों कुछ पल के लिये चुप से हो गए

वो….ठीक है मैं जा रही हूँ फिर

मैं …ठीक है पर मेरे प्रश्न का उत्तर दे देना

वो…ये बात तुम अपने घरवालों से पूछो तो बेहतर होगा

वाकई में वो एक ब्राम्हण परिवार से ताल्लुक़ रखती थी और मैं दलित।

 

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इंसान

क्या करें,
इंसान खुद से हार जाता है
वैराग्य की उत्कण्ठा को
हर रोज जगाता है।
क्या करें,
इंसान खुद से हार जाता है

मन की चंचलता भी कुछ कम नहीं,
मान अपमान का इसे कोई गम नहीं,
इसिलिये कभी सराहा,
कभी दुतकारा जाता है।
क्या करें
इंसान खुद से हार जाता है।

मन भी क्या करे
उसकी चाबुक दिल के पास जो है।
दिल भी क्या करे,
उसे कुछ विशेष पाने की आस जो है।
उसी से कोई तड़प रहा है,
कोई उसे मार जाता है।
क्या करें
इंसान खुद से हार जाता है।


वैराग्य की उत्कण्ठा को हर रोज जगाता है।
क्या करें
इंसान खुद से हार जाता है।

क्या करें इंसान खुद से हार जाता है। वैराग्य की उत्कण्ठा को , हर रोज जगाता है।

@atalforindia @narayanatal

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हे जग जननी देवी तूँ माँ कहलाती है

निश्छल निष्कपट
झपट के लिपट लिपट
मचलता स्नेह अमिट
हर पल निकट निकट
हे जन्म दायिनी भयहारिणी सुखदायनी मां
ना आंखों से ओझल ना एक आह सुन पाती है
हे जग जननी देवी तूँ माँ कहलाती है


वह मचलाता का बचपन
जब आंखें थी चमचम
संघ संघ तेरा मन
और
पैजनिया छम छम
गिरत परत फिर लिपट लिपट
फिर गिरत गिरत तू उठाती मां
लगत कंठ फिर चूमत चूमत
झपट के दिल से लगाती माँ

ना हाथों से छोड़त ना तनिक दूर रह पाती है
हे जग जननी देवी तूँ माँ कहलाती है


मेरे दुख के एक एक आंसू को पिया है तुमने
मेरे खातिर पेट काटकर जीया है तुमने
मेरी हर इच्छा को स्नेहमई सीने से लगाने वाली माँ
परमेश्वरी परमात्मा को भी दूध पिलाने वाली माँ
ना आंखों से ओझल ना एक आह सुन  पाती है
हे जग जननी देवी तूँ माँ कहलाती है



मेरा ठुमक ठुमक चलना
तेरा दौड़-दौड़ आना
मां एक कौर के खातिर,  तेरा सौ सौ बहाना
मेरे तुतलाने पर मंद-मंद छुपके मुस्कुराने वाली माँ
लल्ला खातिर ईश्वर से भी बात लड़ाने वाली माँ
ना हाथों से छोड़त,  एक आह सुन पाती है

हे जग जननी देवी तूँ माँ कहलाती है


करुणा मई माता तेरे खातिर मर ना जाऊं तो निष्फल
मातृ भक्त के खातिर कुछ मैं कर न जाऊं तो निष्फल
ये माता कोई और नही ये अपनी भारत माता है
अपने लालों की चिंता में माता का जी घबराता है
ये फफक फफक कर रोती है जब आपस मे हम लड़ते है
क्यों अपने रक्त से सिंचित कर माता को आहत करते है
माता की गोदी में सबको आँधी भी न छू पायेगी
जब हृष्ट पुष्ट माता होगी आंचल से हमें बचाएगी
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